नज़र आया मुझे मेरा माज़ी
पर अब किसी ताअर्रुफ़ में
मैं उसे
याद नहीं करना चाहता..कुछ
अनबन है
उससे मेरी...
अब हर मज़मून में मैं तुझे
तलाशता...
पता नहीं क्यों तेरी
क़ुर्बत में ज़िंदगी
जीने का मज़ाज़ ढूंढता
हूँ....
क्या मैं लापरवाह हो गया
हूं या फिर
कोई नया ख़ुमार तेरे होने
से मुझमें
शुमार हो गया है.....
क्यों मैं ज़िंदगी के कुछ
पन्ने तुम्हारे
साथ सर्फ करना चाहता
हूँ....
मैं चाहता हूँ कि मैं
तुम्हारा मुहाफिज़ बनूँ
और ज़र्रे-ज़र्रे से.....
ख़यालों में तुमसे हुई
मुलाक़ात की मशर्रत बयां करुँ
हो सकता है तुम्हें ये
अल्फाज़ मज़ाहिया लगें...
लेकिन ये अल्फाज़ कागज़ पर
अफ्शां भर नहीं है
बल्कि ये तो वो बयां
है..जिसे मैं जानता हूँ....
ये तो वो इर्काम है जिसे
दिल के जज़्बात की
स्याही से लिखा गया
है.......
मैं तुम्हारे उन्स का असीर
हूँ...या हो सकता है
तुम्हारा मुन्तज़िर......
(स्वतंत्र अभिव्यक्ति-
हर्षित)
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