तुम हो, किताब हो, बारिश हो और दो प्याले चाय...इससे ज़्यादा ख्वाहिश नहीं बावरे मन की...कप से उड़ रही हो महक इश्क की...और तुम्हारे चेहरे से सुर्ख शर्म शर्मा रही हो..बालकनी में बैठी हो सुहानी शाम.....हम पलट रहे हो उस किताब के पन्ने...जिस किताब ने इश्क को पढ़ा हो...एक पैराग्राफ तुम और एक पैराग्राफ मैं....किताब को बांट दो ऐसे जैसे बंटे हों हम....जब तुम पढ़ो तो चाय की चुस्की के साथ....अंदर जाए तुम्हारी आवाज, किताब का इश्क...जब मैं पढ़ूं तो तुम भी महसूस करो ऐसा कुछ....जैसे ये शाम हर शाम से खूबसूरत है... इसे हमने बनाया है....बिल्कुल अपनी तरह अपने मिजाज़ का....बदल दिया है इसका रंग रूप...कुछ रंगों के साथ कलाकारी की हो....ये रंग चाय के किताब के इस शाम में भरे हों....
भर दिया हो तुम्हारा और मेरा वक्त भी....

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